ख़ास बात यह है कि ओवैसी महाराष्ट्र में सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं रहे हैं. उन्होंने मुस्लिम-दलित गठजोड़ पर फ़ोकस किया है ताकि उनकी पार्टी
का प्रभाव बढ़ सके.
बीबीसी मराठी सेवा के संपादक आशीष दीक्षित बताते
हैं कि ओवैसी ने नारा दिया है- "जय भीम, जय मीम." विधानसभा चुनाव के प्रचार
दौरान ओवैसी अपनी रैलियों में डॉक्टर आंबेडकर की तस्वीरें रखते थे और
उन्होंने अपनी पार्टी से कई जगहों पर दलितों को भी टिकट दिए.
2019
लोकसभा चुनाव के दौरान अहम मोड़ तब आया जब मजलिस ने प्रकाश आंबेडर की
पार्टी बीबीए के साथ गठजोड़ किया और औरंगाबाद सीट पर जीत हासिल की. इस तरह इस बार लोकसभा में एमआईएम के दो सांसद हैं. एक औरंगाबाद से इम्तियाज़ जलील
और दूसरे ओवैसी ख़ुद.
हालांकि हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव से
पह
पूरे पश्चिम बंगाल में मुसलमान वोटरों की संख्या लगभग 30 प्रतिशत है और
कई सीटों पर वे निर्णायक भूमिका निभाते हैं. ऐसे में ममता को डर यह भी है
कि एआईएमआईएम अगर चुनाव में उम्मीदवार उतारती है तो वोट कटने से बीजेपी को
फ़ायदा न मिल जाए जो तेज़ी से राज्य में अपना प्रभाव बढ़ा रही है.
कोलकाता
में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर एम. कहते हैं, "ओवैसी कह चुके हैं कि
अगले चुनाव में वह पश्चिम बंगाल में उम्मीदवार उतार सकते हैं. यहां
अल्पसंख्यक मतदाता लगभग 150 सीटों पर निर्णायक भूमिका में होते हैं. पहले
ये लेफ़्ट के साथ थे, फिर ममता ने उन्हें अपने साथ किया. 2011 में ममता
बनर्जी इसी तबके के समर्थन और वोटों के दम पर सत्ता में आई थीं."
इसी
साल हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अगर उसकी उम्मीदों के मुताबिक़ सीटें
नहीं मिली तो इसका कारण भी यही माना गया कि अल्पसंख्यक तबके ने तृणमूल
कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा था. लेकिन अब ममता बनर्जी को डर है कि ओवैसी का
बढ़ता प्रभाव तृणमूल कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब न बन जाए.
प्रभाकर
एम. कहते हैं, "ममता की चिंता इसलिए बढ़ी है कि ओवैसी यहां एक-बार हाल ही में आ चुके हैं. उन्हें डर यह है कि एक-डेढ़ साल बाद होने वाले चुनावों में
अगर ओवैसी ने अपनी पार्टी से उम्मीदवार खड़े किए तो वोटों का विभाजन होगा
जिसका सीधा नुक़सान तृणमूल कांग्रेस को होगा और यह बीजेपी के लिए फ़ायदे की
स्थिति है."
माना जा रहा है कि इसी कारण इशारों-इशारों में ममता बनर्जी ने नाम लिए बिना ओवैसी की पार्टी पर 'बीजेपी के साथ मिले होने' का
आरोप लगाया. हालांकि इस पर ओवैसी ने पलटवार करते हुए कहा है कि "अपनी
अक्षमताओं के लिए हर कोई मुझे टारगेट कर रहा है."
मजलिस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उम्मीदवार उतारे थे मगर उसे वहां सफलता नहीं मिली थी. मगर बिहार के किशनगंज में हुए विधानसभा
उपचुनाव के दौरान मजलिस के प्रत्याशी कमरुल होदा ने बीजेपी प्रत्याशी
स्वीटी सिंह को 10 हज़ार से अधिक वोटों से हरा दिया. यह कांग्रेस की पारंपरिक सीट थी मगर यहां कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही थी.
ख़ास बात
यह है कि किशनगंज बिहार का वह इलाक़ा है जो पश्चिम बंगाल से जुड़ा हुआ है.
ओवैसी और एआईएमआईएम की राजनीति पर वरिष्ठ पत्रकार उमर फ़ारूक़ कहते हैं
एआईएमआईएम का इस क्षेत्र में बढ़ता प्रभाव भी ममता बनर्जी की चिंता का कारण
हो सकता है.
वह कहते हैं, "पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत में मुसलमानों के वोटों की अहम भूमिका रहती है. ओवैसी की लोकप्रियता अन्य
राज्यों के मुसलमानों के बीच बढ़ रही है. ऐसे में स्वाभाविक है कि ममता
बनर्जी को भी चिंता सता रही होगी कि पश्चिम बंगाल के मुसलमान भी ओवैसी की
पार्टी की तरफ़ आकर्षित न हो जाएं. फिर किशनगंज का इलाक़ा पश्चिम बंगाल के
नज़दीक है. तो वहां का कुछ न कुछ प्रभाव तो पश्चिम बंगाल पर पड़ेगा
कूचबिहार, जहां ममता बनर्जी ने अप्रत्यक्ष तौर पर ओवैसी पर निशाना साधा, वहां मुसलमानों की आबादी अधिक है."
सवाल यह है कि ऐसे क्या कारण हो सकते हैं कि तृणमूल को डर है कि अब तक जो मतदाता उसके साथ थे, वे कल को छिटक सकते हैं?
इस
पर उमर फ़ारूक़ कहते हैं, "ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में निराशा बढ़ रही है. उन्हें लगता है कि शिक्षा और नौकरियों को लेकर उनकी
स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़ापन शायद वहां
ज़्यादा है. उन्हें उम्मीद थी कि आकर्षक बातों और वादों से इतर तृणमूल
सरकार उनकी समस्याओं को हल करने की कोशिश करेगी. मगर लगता है ऐसा हुआ नहीं
है."
ले एआईएमआईएम और बीबीए का गठबंधन सीटों के विवाद के कारण टूट गया, बावजूद उसके मजलिस को दो सीटें मिली हैं- धुले और मालेगांव. फिर भी औरंगाबाद,
मराठवाड़ा और मुंबई के कुछ इलाक़ों से मजलिस को काफ़ी वोट मिले हैं.
Игра по правилам
Thursday, November 21, 2019
Tuesday, September 17, 2019
स्वामी चिन्मयानंद की शाहजहांपुर में कितनी हनक है: ग्राउंड रिपोर्ट
"स्वामी चिन्मयानंद ने मेरी विवशता का फ़ायदा उठाकर धोखे से मेरा नहाते वक़्त का वीडियो बनाया, फिर उससे ब्लैकमेल करके मेरा रेप किया और फिर उसका
भी वीडियो बनाकर एक साल तक मेरा शोषण करते रहे. मुझे लगा कि इनको इसी तरह
से जवाब दिया जा सकता है क्योंकि इनसे लड़ने की न तो मेरी हैसियत थी और न
ही मुझमें ताक़त थी."
ये कहना है शाहजहांपुर के लॉ कॉलेज की उस छात्रा का जिसने पूर्व मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर रेप का आरोप लगाया है. लड़की का कहना है कि एक साल तक वो इस मामले में चुप नहीं बैठी थी बल्कि 'क्या कार्रवाई कर सकती है, इसका रास्ता तलाश रही थी.'
बीबीसी से बातचीत में लड़की ने बताया, "मैंने लॉ की पढ़ाई भी उसी कॉलेज में की है लेकिन तब तक कुछ पता नहीं था. एलएलएम में एडमिशन के लिए जब कॉलेज के प्रिंसिपल के कहने पर चिन्मयानंद से मिली, उसके बाद से मैंने इनका असली चेहरा देखा. शाहजहांपुर में मैं प्रशासन या पुलिस से इनकी शिकायत कर नहीं सकती थी क्योंकि वे लोग तो ख़ुद ही आश्रम में इनके पास आशीर्वाद लेने आते थे. फिर मेरे दोस्त ने मुझे ये तरीक़ा सुझाया और मैंने ऑनलाइन कैमरा मंगाकर वीडियो बनाया."
स्वामी चिन्मयानंद पर फ़िलहाल लड़की के अपहण और धमकी देने के आरोप के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में एसआईटी जांच कर रही है. पीड़ित लड़की का मेडिकल परीक्षण भी कराया जा चुका है लेकिन रेप की एफ़आईआर दर्ज नहीं हुई है.
इस बीच, पिछले चार दिनों में एसआईटी की टीम कई बार मुमुक्षु आश्रम में स्वामी चिन्मयानंद से घंटों पूछताछ कर चुकी है. बताया जा रहा है कि उनका मोबाइल फ़ोन भी एसआईटी ने ज़ब्त कर लिया है. जांच के पहले दिन चिन्मयानंद का कमरा भी सील कर दिया गया था लेकिन कुछ सामान अपने कब्ज़े में लेने के बाद एसआईटी ने उस कमरे को दोबारा खोल दिया.
वहीं पीड़ित लड़की और उनके पिता ने सबूत के तौर पर 43 नए वीडियो एसआईटी टीम को सौंपे हैं. पीड़ित लड़की ने बीबीसी से बातचीत में दावा किया था कि उसके पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि स्वामी चिन्मयानंद ने उसके साथ कई बार ज़बरन रेप किया है. लड़की के मुताबिक, कुछ अन्य लड़कियों के साथ भी हुए शोषण के सबूत उसके पास हैं जिन्हें उन्हीं लड़कियों ने उसे मुहैया कराए हैं जो ख़ुद पीड़ित हैं.
स्वामी चिन्मयानंद से उनका पक्ष जानने की कोशिश की गई लेकिन उन्होंने साफ़तौर पर मीडिया से न सिर्फ़ बात करने से मना कर दिया बल्कि मिलने से भी साफ़ इनकार कर दिया. हालांकि जवाब देने के लिए उनके प्रवक्ता और वकील ओम सिंह ज़रूर सामने आए.
उनका कहना था, "जो कुछ भी हो रहा है, स्वामी जी की छवि को ख़राब करने और उन्हें सामाजिक स्तर पर बदनाम करने की साज़िश के तहत हो रहा है. एसआईटी की जांच में सब सामने आ जाएगा."
स्वामी चिन्मयानंद मीडिया से भले ही बात न कर रहे हों लेकिन वो फ़िलहाल मुमुक्षु आश्रम परिसर में ही हैं. एसआईटी ने उन्हें शाहजहांपुर से बाहर जाने से मना भी किया है. बताया जा रहा है कि शनिवार को स्वामी चिन्मयानंद ने मुमुक्षु आश्रम के तहत संचालित सभी पांच शिक्षण संस्थाओं का भ्रमण किया और कर्मचारियों से मुलाक़ात भी की.
इस बीच, एसएस लॉ कॉलेज को गुरुवार को बंद कर दिया गया था. इसके पीछे कोई वजह तो नहीं बताई जा रही है लेकिन एसआईटी टीम के बार-बार परिसर में आने और चिन्मयानंद समेत कई लोगों से पूछताछ करने के कारण शायद ये क़दम उठाया गया है. सोमवार को कॉलेज फिर से खोले जाने की सूचना गेट पर चस्पा कर दी गई है.
कॉलेज परिसर में मिले कुछ छात्रों से जब इस प्रकरण पर बात करने की कोशिश की गई तो सामने आकर किसी ने बात नहीं की लेकिन कैमरे और रिकॉर्डर से दूर होने के बाद बेहद उदास और मायूसी के साथ अपनी बात रखी. इतिहास विषय में एमए कर रहे एक छात्र को इस बात का बेहद कष्ट था कि उनके कॉलेज के 'सर्वेसर्वा और सबसे आदरणीय व्यक्ति को ऐसी हरकत के साथ दुनिया देख रही है.'
एसएस पीजी कॉलेज के कुछ प्राध्यापकों ने बताया कि छात्र आपस में तो चर्चा कर ही रहे हैं, सबसे बड़ी दिक़्क़त और शर्मिंदगी का सामना तो तब करना पड़ता है जब 'हमारे अपने छात्र आकर इस पर कुछ पूछते हैं, वो भी चटखारे लेते हुए.' एसएस पीजी कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर अवनीश मिश्र, लॉ कॉलेज के प्रबंधक भी हैं. डॉक्टर मिश्र भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इन सब घटनाओं से मुमुक्षु आश्रम के शैक्षणिक संस्थानों की छवि पर तो असर पड़ ही रहा है लेकिन उन्हें उम्मीद है कि सब जल्द ही सही हो जाएगा.
डॉक्टर अवनीश मिश्र कहते हैं, "जब ऐसे विवाद सामने आते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमारी अपनी नैतिकता को धक्का पहुंचता है. लेकिन मुझे उम्मीद है कि यह ग्रहण काल जल्द ही समाप्त हो जाएगा."
शाहजहांपुर में बरेली रोड पर स्थित मुमुक्षु आश्रम से एक ही परिसर में पांच शिक्षण संस्थान संचालित होते हैं. स्वामी चिन्मयानंद साल 1989 में मुमुक्षु आश्रम के अधिष्ठाता बने और इस वजह से वो यहां से संचालित होने वाले सभी शिक्षण संस्थाओं के प्रमुख भी हैं. क़रीब 21 एकड़ ज़मीन में फैले इस आश्रम परिसर में ही उनका निवास है जिसे 'दिव्य धाम' कहा जाता है.
सभी संस्थानों में कुल मिलाकर क़रीब दस हज़ार छात्र यहां पढ़ते हैं. समाज कल्याण विभाग ने दलितों और पिछड़ों के लिए दो छात्रावास बनाए हैं, उन्हीं में से एक छात्रावास में पीड़ित लड़की भी रहती थी जिसे अब सील कर दिया गया है.
पीड़ित लड़की का परिवार शाहजहांपुर शहर में ही छात्रावास से क़रीब दो किमी की ही दूरी पर रहता है. ऐसे में उसके छात्रावास में रहने के औचित्य पर भी सवाल उठ रहे हैं. स्वामी चिन्मयानंद के प्रवक्ता ओम सिंह कहते हैं, "ख़ुद लड़की की मां स्वामी जी के पास ये कहते हुए छात्रावास में रखने की पैरवी के लिए आई थी कि उसके पति उसे प्रताड़ित करते हैं और ऐसे माहौल में लड़की घर पर पढ़ नहीं पाती है. यही नहीं, उन लोगों ने जब आर्थिक तंगी का ज़िक्र किया तो स्वामी जी ने लॉ कॉलेज में लड़की को अस्थाई तौर पर कुछ काम भी दिला दिया ताकि वो अपनी पढ़ाई कर सके."
लेकिन पीड़ित लड़की का बयान इससे एक़दम उलट है. लड़की का कहना है, "हां, मुझे कॉलेज में काम दिलाया था कंप्यूटर ऑपरेटर का. लेकिन मुझे कॉलेज के काम से जानबूझकर देर तक रोका जाता था जिसकी वजह से स्वामी चिन्मयानंद दबाव डालने लगे कि तुम छात्रावास में ही रुक जाया करो. इस वजह से मैं वहां रुकती थी. बाद में उनके लोग ज़बरन सुबह छह बजे ही मुझे चिन्मयानंद के पास ले जाते थे."
चिन्मयानंद पर इससे पहले भी ऐसे आरोप लग चुके हैं जिनमें कुछ ने काफ़ी सुर्खियां भी बटोरी थीं. स्वामी चिन्मयानंद के शुभचिंतक और उनके प्रवक्ता इसे 'स्वामी जी की छवि ख़राब करने की साज़िश' बता रहे हैं लेकिन शाहजहांपुर के आम लोगों के बीच स्वामी चिन्मयानंद की इस छवि से लोग अनजान नहीं हैं.
ये कहना है शाहजहांपुर के लॉ कॉलेज की उस छात्रा का जिसने पूर्व मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर रेप का आरोप लगाया है. लड़की का कहना है कि एक साल तक वो इस मामले में चुप नहीं बैठी थी बल्कि 'क्या कार्रवाई कर सकती है, इसका रास्ता तलाश रही थी.'
बीबीसी से बातचीत में लड़की ने बताया, "मैंने लॉ की पढ़ाई भी उसी कॉलेज में की है लेकिन तब तक कुछ पता नहीं था. एलएलएम में एडमिशन के लिए जब कॉलेज के प्रिंसिपल के कहने पर चिन्मयानंद से मिली, उसके बाद से मैंने इनका असली चेहरा देखा. शाहजहांपुर में मैं प्रशासन या पुलिस से इनकी शिकायत कर नहीं सकती थी क्योंकि वे लोग तो ख़ुद ही आश्रम में इनके पास आशीर्वाद लेने आते थे. फिर मेरे दोस्त ने मुझे ये तरीक़ा सुझाया और मैंने ऑनलाइन कैमरा मंगाकर वीडियो बनाया."
स्वामी चिन्मयानंद पर फ़िलहाल लड़की के अपहण और धमकी देने के आरोप के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशन में एसआईटी जांच कर रही है. पीड़ित लड़की का मेडिकल परीक्षण भी कराया जा चुका है लेकिन रेप की एफ़आईआर दर्ज नहीं हुई है.
इस बीच, पिछले चार दिनों में एसआईटी की टीम कई बार मुमुक्षु आश्रम में स्वामी चिन्मयानंद से घंटों पूछताछ कर चुकी है. बताया जा रहा है कि उनका मोबाइल फ़ोन भी एसआईटी ने ज़ब्त कर लिया है. जांच के पहले दिन चिन्मयानंद का कमरा भी सील कर दिया गया था लेकिन कुछ सामान अपने कब्ज़े में लेने के बाद एसआईटी ने उस कमरे को दोबारा खोल दिया.
वहीं पीड़ित लड़की और उनके पिता ने सबूत के तौर पर 43 नए वीडियो एसआईटी टीम को सौंपे हैं. पीड़ित लड़की ने बीबीसी से बातचीत में दावा किया था कि उसके पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि स्वामी चिन्मयानंद ने उसके साथ कई बार ज़बरन रेप किया है. लड़की के मुताबिक, कुछ अन्य लड़कियों के साथ भी हुए शोषण के सबूत उसके पास हैं जिन्हें उन्हीं लड़कियों ने उसे मुहैया कराए हैं जो ख़ुद पीड़ित हैं.
स्वामी चिन्मयानंद से उनका पक्ष जानने की कोशिश की गई लेकिन उन्होंने साफ़तौर पर मीडिया से न सिर्फ़ बात करने से मना कर दिया बल्कि मिलने से भी साफ़ इनकार कर दिया. हालांकि जवाब देने के लिए उनके प्रवक्ता और वकील ओम सिंह ज़रूर सामने आए.
उनका कहना था, "जो कुछ भी हो रहा है, स्वामी जी की छवि को ख़राब करने और उन्हें सामाजिक स्तर पर बदनाम करने की साज़िश के तहत हो रहा है. एसआईटी की जांच में सब सामने आ जाएगा."
स्वामी चिन्मयानंद मीडिया से भले ही बात न कर रहे हों लेकिन वो फ़िलहाल मुमुक्षु आश्रम परिसर में ही हैं. एसआईटी ने उन्हें शाहजहांपुर से बाहर जाने से मना भी किया है. बताया जा रहा है कि शनिवार को स्वामी चिन्मयानंद ने मुमुक्षु आश्रम के तहत संचालित सभी पांच शिक्षण संस्थाओं का भ्रमण किया और कर्मचारियों से मुलाक़ात भी की.
इस बीच, एसएस लॉ कॉलेज को गुरुवार को बंद कर दिया गया था. इसके पीछे कोई वजह तो नहीं बताई जा रही है लेकिन एसआईटी टीम के बार-बार परिसर में आने और चिन्मयानंद समेत कई लोगों से पूछताछ करने के कारण शायद ये क़दम उठाया गया है. सोमवार को कॉलेज फिर से खोले जाने की सूचना गेट पर चस्पा कर दी गई है.
कॉलेज परिसर में मिले कुछ छात्रों से जब इस प्रकरण पर बात करने की कोशिश की गई तो सामने आकर किसी ने बात नहीं की लेकिन कैमरे और रिकॉर्डर से दूर होने के बाद बेहद उदास और मायूसी के साथ अपनी बात रखी. इतिहास विषय में एमए कर रहे एक छात्र को इस बात का बेहद कष्ट था कि उनके कॉलेज के 'सर्वेसर्वा और सबसे आदरणीय व्यक्ति को ऐसी हरकत के साथ दुनिया देख रही है.'
एसएस पीजी कॉलेज के कुछ प्राध्यापकों ने बताया कि छात्र आपस में तो चर्चा कर ही रहे हैं, सबसे बड़ी दिक़्क़त और शर्मिंदगी का सामना तो तब करना पड़ता है जब 'हमारे अपने छात्र आकर इस पर कुछ पूछते हैं, वो भी चटखारे लेते हुए.' एसएस पीजी कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर अवनीश मिश्र, लॉ कॉलेज के प्रबंधक भी हैं. डॉक्टर मिश्र भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इन सब घटनाओं से मुमुक्षु आश्रम के शैक्षणिक संस्थानों की छवि पर तो असर पड़ ही रहा है लेकिन उन्हें उम्मीद है कि सब जल्द ही सही हो जाएगा.
डॉक्टर अवनीश मिश्र कहते हैं, "जब ऐसे विवाद सामने आते हैं तो स्वाभाविक रूप से हमारी अपनी नैतिकता को धक्का पहुंचता है. लेकिन मुझे उम्मीद है कि यह ग्रहण काल जल्द ही समाप्त हो जाएगा."
शाहजहांपुर में बरेली रोड पर स्थित मुमुक्षु आश्रम से एक ही परिसर में पांच शिक्षण संस्थान संचालित होते हैं. स्वामी चिन्मयानंद साल 1989 में मुमुक्षु आश्रम के अधिष्ठाता बने और इस वजह से वो यहां से संचालित होने वाले सभी शिक्षण संस्थाओं के प्रमुख भी हैं. क़रीब 21 एकड़ ज़मीन में फैले इस आश्रम परिसर में ही उनका निवास है जिसे 'दिव्य धाम' कहा जाता है.
सभी संस्थानों में कुल मिलाकर क़रीब दस हज़ार छात्र यहां पढ़ते हैं. समाज कल्याण विभाग ने दलितों और पिछड़ों के लिए दो छात्रावास बनाए हैं, उन्हीं में से एक छात्रावास में पीड़ित लड़की भी रहती थी जिसे अब सील कर दिया गया है.
पीड़ित लड़की का परिवार शाहजहांपुर शहर में ही छात्रावास से क़रीब दो किमी की ही दूरी पर रहता है. ऐसे में उसके छात्रावास में रहने के औचित्य पर भी सवाल उठ रहे हैं. स्वामी चिन्मयानंद के प्रवक्ता ओम सिंह कहते हैं, "ख़ुद लड़की की मां स्वामी जी के पास ये कहते हुए छात्रावास में रखने की पैरवी के लिए आई थी कि उसके पति उसे प्रताड़ित करते हैं और ऐसे माहौल में लड़की घर पर पढ़ नहीं पाती है. यही नहीं, उन लोगों ने जब आर्थिक तंगी का ज़िक्र किया तो स्वामी जी ने लॉ कॉलेज में लड़की को अस्थाई तौर पर कुछ काम भी दिला दिया ताकि वो अपनी पढ़ाई कर सके."
लेकिन पीड़ित लड़की का बयान इससे एक़दम उलट है. लड़की का कहना है, "हां, मुझे कॉलेज में काम दिलाया था कंप्यूटर ऑपरेटर का. लेकिन मुझे कॉलेज के काम से जानबूझकर देर तक रोका जाता था जिसकी वजह से स्वामी चिन्मयानंद दबाव डालने लगे कि तुम छात्रावास में ही रुक जाया करो. इस वजह से मैं वहां रुकती थी. बाद में उनके लोग ज़बरन सुबह छह बजे ही मुझे चिन्मयानंद के पास ले जाते थे."
चिन्मयानंद पर इससे पहले भी ऐसे आरोप लग चुके हैं जिनमें कुछ ने काफ़ी सुर्खियां भी बटोरी थीं. स्वामी चिन्मयानंद के शुभचिंतक और उनके प्रवक्ता इसे 'स्वामी जी की छवि ख़राब करने की साज़िश' बता रहे हैं लेकिन शाहजहांपुर के आम लोगों के बीच स्वामी चिन्मयानंद की इस छवि से लोग अनजान नहीं हैं.
Friday, July 5, 2019
स्व-अधिसूचना पर आपत्ति
बलूचिस्तान हाई कोर्ट के अलावा वो सिंध हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और शरीअत कोर्ट में पेश हुए थे जबकि कई बार अदालत में बतौर एमिकस क्यूरी
(मददगार) भी तलब किए गए. वो बलूचिस्तान और सिंध हाई कोर्ट के अलावा सुप्रीम
कोर्ट के सदस्य तो रहे लेकिन बार काउंसिल की सक्रिय सियासत से दूर रहे.
क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा जनहित याचिका भी दायर करते रहे जबकि बैंकिंग, पर्यावरण और सिविल लॉ में इनकी महारत है. वो वर्ल्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक के पदों पर क़ानूनी सहायक रहे हैं. इन पदों में कराची मास ट्रांजिट, हाइवे फाइनैंसिंग एंड ऑपरेशन, बलूचिस्तान ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज़ शामिल हैं.
बलूचिस्तान हाई कोर्ट में बतौर जज तैनात होने से पहले वो अंग्रेज़ी अख़बारों में संविधान और क़ानून, इतिहास और पर्यावरण पर विश्लेषणात्मक लेख भी लिखते थे. इसके अलावा 'मास मीडिया लॉ एंड रेगूलेशन' के सह-लेखक, 'बलूचिस्तान केस एंड डिमांड' के भी लेखक हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने क्वेटा बम धमाके की जांच के लिए एक कमीशन का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा को दी गई थी. साल 2016 में क्वेटा सिविल अस्पताल में आत्मघाती हमले में 70 लोगों की मौत हुई थी.
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सिक्योरिटी संस्थाओं के कामों पर सवाल उठाए और साथ में चरमपंथी संगठनों की सरगर्मियों पर भी चिंता व्यक्त की. कमीशन ने रिपोर्ट में कहा था कि सरकार आतंकवाद के ख़ात्मे के क़ानून पर पालन करते हुए चरमपंथियों और उनके संगठनों को तुरंत प्रतिबंधित करे.
कमीशन ने नेशनल एक्शन प्लान को मुनासिब तरीक़े से लागू करने की ज़रूरत पर ज़ोर देने के साथ आतंकवाद से मुक़ाबले की बनी संस्था नेक्टा के ख़राब प्रदर्शन की आलोचना की थी.
कमीशन ने उस वक़्त के संघीय आंतरिक मंत्री चौधरी निसार से चरमपंथी संगठन अहले सुन्नत और अल-जमाअत के सरबराह अल्लामा यूसुफ़ लुधियानवी से मुलाक़ात पर भी सवाल उठाया था.
चौधरी निसार का कहना था कि वो पाकिस्तान डिफेंस काउंसिल के प्रतिनिधिमंडल के साथ आए थे जिसकी अध्यक्षता मौलाना समीउल हक़ कर रहे थे. चौधरी निसार ने आरोपों को निजी क़रार दिया था. सरकार ने कमीशन की रिपोर्ट पर संशोधन के लिए आवेदन दायर करने का ऐलान किया.
सुप्रीम कोर्ट की फुल कोर्ट ने जब 2015 में चीफ़ जस्टिस नासिर अलमक की अध्यक्षता में फौजी अदालतों की स्थापना के हक़ में फ़ैसला दिया तो जस्टिस क़ाज़ी ईसा उन 6 जजों में शामिल थे, जिन्होंने फौजी अदालतों की स्थापना का विरोध किया था.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस इफ़्तिख़ार मोहम्मद चौधरी के बाद चीफ़ जस्टिस साक़िब निसार ने सबसे ज़्यादा स्वतः संज्ञान लिए, जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा ने इस कार्रवाई पर आपत्ति की थी.
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस साक़िब निसार के साथ पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल हमले केस की स्वतः संज्ञान नोटिस की सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के ह्यूमन राइट्स सेल के पास सीधे कोई अख़्तियार नहीं कि आवेदन को स्व-अधिसूचना में तब्दील किया जाए. उन्होंने आपत्ति की कि आर्टिकल 184 (3) के तहत पहले सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर ज़रूरी है.
इसी सुनवाई के दौरान चीफ़ जस्टिस साक़िब निसार ने अचानक अदालत बर्ख़ास्त कर दी और कुछ देर बाद जब अदालत दुबारा लगी तो बेंच में जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा शामिल नहीं थे.
इन जजों की राय थी कि इन अदालतों की स्थापना न्यायपालिका की आज़ादी और मानव अधिकारों का उल्लंघन है. हालांकि मुस्लिम लीग (एन) की सरकार ने इस फ़ैसले को जीत क़रार दिया था और कहा था कि इन अदालतों की मदद से चरमपंथ का ख़ात्मा किया जाएगा.
क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा जनहित याचिका भी दायर करते रहे जबकि बैंकिंग, पर्यावरण और सिविल लॉ में इनकी महारत है. वो वर्ल्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक के पदों पर क़ानूनी सहायक रहे हैं. इन पदों में कराची मास ट्रांजिट, हाइवे फाइनैंसिंग एंड ऑपरेशन, बलूचिस्तान ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज़ शामिल हैं.
बलूचिस्तान हाई कोर्ट में बतौर जज तैनात होने से पहले वो अंग्रेज़ी अख़बारों में संविधान और क़ानून, इतिहास और पर्यावरण पर विश्लेषणात्मक लेख भी लिखते थे. इसके अलावा 'मास मीडिया लॉ एंड रेगूलेशन' के सह-लेखक, 'बलूचिस्तान केस एंड डिमांड' के भी लेखक हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने क्वेटा बम धमाके की जांच के लिए एक कमीशन का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा को दी गई थी. साल 2016 में क्वेटा सिविल अस्पताल में आत्मघाती हमले में 70 लोगों की मौत हुई थी.
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सिक्योरिटी संस्थाओं के कामों पर सवाल उठाए और साथ में चरमपंथी संगठनों की सरगर्मियों पर भी चिंता व्यक्त की. कमीशन ने रिपोर्ट में कहा था कि सरकार आतंकवाद के ख़ात्मे के क़ानून पर पालन करते हुए चरमपंथियों और उनके संगठनों को तुरंत प्रतिबंधित करे.
कमीशन ने नेशनल एक्शन प्लान को मुनासिब तरीक़े से लागू करने की ज़रूरत पर ज़ोर देने के साथ आतंकवाद से मुक़ाबले की बनी संस्था नेक्टा के ख़राब प्रदर्शन की आलोचना की थी.
कमीशन ने उस वक़्त के संघीय आंतरिक मंत्री चौधरी निसार से चरमपंथी संगठन अहले सुन्नत और अल-जमाअत के सरबराह अल्लामा यूसुफ़ लुधियानवी से मुलाक़ात पर भी सवाल उठाया था.
चौधरी निसार का कहना था कि वो पाकिस्तान डिफेंस काउंसिल के प्रतिनिधिमंडल के साथ आए थे जिसकी अध्यक्षता मौलाना समीउल हक़ कर रहे थे. चौधरी निसार ने आरोपों को निजी क़रार दिया था. सरकार ने कमीशन की रिपोर्ट पर संशोधन के लिए आवेदन दायर करने का ऐलान किया.
सुप्रीम कोर्ट की फुल कोर्ट ने जब 2015 में चीफ़ जस्टिस नासिर अलमक की अध्यक्षता में फौजी अदालतों की स्थापना के हक़ में फ़ैसला दिया तो जस्टिस क़ाज़ी ईसा उन 6 जजों में शामिल थे, जिन्होंने फौजी अदालतों की स्थापना का विरोध किया था.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस इफ़्तिख़ार मोहम्मद चौधरी के बाद चीफ़ जस्टिस साक़िब निसार ने सबसे ज़्यादा स्वतः संज्ञान लिए, जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा ने इस कार्रवाई पर आपत्ति की थी.
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस साक़िब निसार के साथ पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल हमले केस की स्वतः संज्ञान नोटिस की सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के ह्यूमन राइट्स सेल के पास सीधे कोई अख़्तियार नहीं कि आवेदन को स्व-अधिसूचना में तब्दील किया जाए. उन्होंने आपत्ति की कि आर्टिकल 184 (3) के तहत पहले सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर ज़रूरी है.
इसी सुनवाई के दौरान चीफ़ जस्टिस साक़िब निसार ने अचानक अदालत बर्ख़ास्त कर दी और कुछ देर बाद जब अदालत दुबारा लगी तो बेंच में जस्टिस क़ाज़ी फ़ाएज़ ईसा शामिल नहीं थे.
इन जजों की राय थी कि इन अदालतों की स्थापना न्यायपालिका की आज़ादी और मानव अधिकारों का उल्लंघन है. हालांकि मुस्लिम लीग (एन) की सरकार ने इस फ़ैसले को जीत क़रार दिया था और कहा था कि इन अदालतों की मदद से चरमपंथ का ख़ात्मा किया जाएगा.
Tuesday, July 2, 2019
中国采取措施保护作物多样性
未来10年中国人口增长将超过2亿,但粮食安全问题的变数却似乎越来越大。中美贸易摩擦和非洲猪瘟的爆发都有可能给中国粮食安全带来挑战。
为了养活本国民众,中国粮食产量的年增长率必须达到1%。过去几十年间中国的粮食战略侧重于通过增加耕地面积和化肥用量来提高产量。中国农民的化肥用量近6000万吨,占全球总量的30%以上。农业用水占中国总用水量的60%以上,但农作物只吸收了其中一半,另一半都因为灌溉方式不当和引水渠防渗漏措施不到位而流失。与此同时,中国还必须应对快速发展的城市化和工业化。
中国的耕作方式造成含水层、土壤质量和生物多样性的广泛下降。生物多样性流失不仅限于中国的野生动植物,农民对作物的选择也是这种生物多样性流失的一部分。一味追求产出效率导致中国的农作物品种单一。作物多样性下降幅度巨大。例如,湖南省2014年种植的水稻仅84种,1956年则有1366种。
长期来看,作物生物多样性的萎缩对中国农民是不利的,不仅会导致作物收成无法抵御疾病、虫害和气候变化的影响,还会给土壤、原料投入、授粉和水资源储备带来更大的压力。
事情原本应该是另外一副景象。中国是世界上许多作物的原产地之一,比如苹果、梨和茶叶。纵观历史,中国人民曾利用超过上万种植物来养活自己。 国际生物多样性中心编制的一份新的农业生物多样性指数显示,作物生物多样性提高将大大有助于中国应对和抵御营养不良、贫困等一系列风险的能力,提高土地管理的可持续性。近来,仅贵州省就发现了150种具有高产潜力、早熟、或抗旱抗病能力的作物品种。
除了能够提高适应性之外,作物多样化还有助于改善中国人的营养和健康。中国近三分之一的成年人超重,十个人中就有一人患有糖尿病,究其原因,与饮食单一有很大关系。
2017年中国发布《国民营养计划》,提出要大力推广营养农产品,特别是有机、绿色、无污染食品,以及双蛋白(大豆和牛奶)食品。计划还提倡通过饮食促进健康,包括荞麦、燕麦等能够有助于改善身体机能的传统养生食品。
作物多样化也将大大有助于减少贫困。中国目前仍有4000多万贫困人口,他们大多居住在农村边缘地带,改善作物多样性意味着为他们提供了更多谋生的手段,一些地区的农民因为缺少主流作物而陷入困境,这对他们而言将十分有益。五常大米、南丰蜜桔、莱阳梨等特色作物正陆续开辟新的市场,这也有助于提高农民收入。
此外,改善作物多样性对中国的环境也大有益处。农民种植的作物品种越丰富,水资源和化肥用量就越少,土地退化和土壤侵蚀也会减少。这也意味着昆虫拥有更多的生存空间,而84%的商业作物授粉都是由昆虫完成的。
截至2017年底,中国已经在全国27个省份建立了206个保护区,69种农作物的野生亲缘物种得到保护。农科院还收集了350种作物的近50万个样本,并在努力研究和培育最有益于农民的种子。
为了养活本国民众,中国粮食产量的年增长率必须达到1%。过去几十年间中国的粮食战略侧重于通过增加耕地面积和化肥用量来提高产量。中国农民的化肥用量近6000万吨,占全球总量的30%以上。农业用水占中国总用水量的60%以上,但农作物只吸收了其中一半,另一半都因为灌溉方式不当和引水渠防渗漏措施不到位而流失。与此同时,中国还必须应对快速发展的城市化和工业化。
中国的耕作方式造成含水层、土壤质量和生物多样性的广泛下降。生物多样性流失不仅限于中国的野生动植物,农民对作物的选择也是这种生物多样性流失的一部分。一味追求产出效率导致中国的农作物品种单一。作物多样性下降幅度巨大。例如,湖南省2014年种植的水稻仅84种,1956年则有1366种。
长期来看,作物生物多样性的萎缩对中国农民是不利的,不仅会导致作物收成无法抵御疾病、虫害和气候变化的影响,还会给土壤、原料投入、授粉和水资源储备带来更大的压力。
事情原本应该是另外一副景象。中国是世界上许多作物的原产地之一,比如苹果、梨和茶叶。纵观历史,中国人民曾利用超过上万种植物来养活自己。 国际生物多样性中心编制的一份新的农业生物多样性指数显示,作物生物多样性提高将大大有助于中国应对和抵御营养不良、贫困等一系列风险的能力,提高土地管理的可持续性。近来,仅贵州省就发现了150种具有高产潜力、早熟、或抗旱抗病能力的作物品种。
除了能够提高适应性之外,作物多样化还有助于改善中国人的营养和健康。中国近三分之一的成年人超重,十个人中就有一人患有糖尿病,究其原因,与饮食单一有很大关系。
2017年中国发布《国民营养计划》,提出要大力推广营养农产品,特别是有机、绿色、无污染食品,以及双蛋白(大豆和牛奶)食品。计划还提倡通过饮食促进健康,包括荞麦、燕麦等能够有助于改善身体机能的传统养生食品。
作物多样化也将大大有助于减少贫困。中国目前仍有4000多万贫困人口,他们大多居住在农村边缘地带,改善作物多样性意味着为他们提供了更多谋生的手段,一些地区的农民因为缺少主流作物而陷入困境,这对他们而言将十分有益。五常大米、南丰蜜桔、莱阳梨等特色作物正陆续开辟新的市场,这也有助于提高农民收入。
此外,改善作物多样性对中国的环境也大有益处。农民种植的作物品种越丰富,水资源和化肥用量就越少,土地退化和土壤侵蚀也会减少。这也意味着昆虫拥有更多的生存空间,而84%的商业作物授粉都是由昆虫完成的。
截至2017年底,中国已经在全国27个省份建立了206个保护区,69种农作物的野生亲缘物种得到保护。农科院还收集了350种作物的近50万个样本,并在努力研究和培育最有益于农民的种子。
Tuesday, June 25, 2019
पाकिस्तान और भारत क्या इस क्रिकेट वर्ल्ड कप में फिर टकराएंगे?
इंग्लैंड में खेला जा रहा वर्ल्ड कप क्रिकेट टूर्नामेंट अपने शबाब पर है. कुछ मुक़ाबले दिल की धड़कनें बेहद
तेज़ कर देने वाले रहे हैं और चौंकाने वाले भी.
एक पखवाड़े पहले
दक्षिण अफ्रीका सरीखी टीमों को खिताब का दावेदार बताया जा रहा था, लेकिन
बड़े टूर्नामेंट में एक बार फिर इस टीम ने अपने खेल से निराश किया और सात मैचों में सिर्फ़ एक मुक़ाबला जीत कर नॉकआउट हो चुकी है. टूर्नामेंट में अब तक कम से कम चार मैच तो ऐसे रहे, जिन्होंने साबित किया कि मैच से पहले भले ही किसी टीम को फ़ेवरेट माना जाए, लेकिन जब खिलाड़ी मैदान पर उतरते हैं असल इम्तहान तभी होता है.
जैसे-जैसे टूर्नामेंट आगे बढ़ रहा है अंकों के जोड़-तोड़ का खेल भी तेज़ हो गया है. श्रीलंका की इंग्लैंड पर जीत और फिर पाकिस्तान के दक्षिण अफ्रीका हराने के बाद सेमीफ़ाइनल मुक़ाबलों की जंग भी दिलचस्प होती दिख रही है.
राउंड रॉबिन लीग मुकाबले में पाकिस्तान को शिकस्त देने के बाद क्रिकेट प्रशंसक ये जानने के लिए बेताब हैं कि क्या भारत अपने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी से एक बार फिर टकरा सकता है.
अभी अंक तालिका में टॉप चार टीमें न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, भारत और मेज़बान इंग्लैंड हैं.
भारत से हारने के बाद अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से हारने के बाद दक्षिण अफ्रीका के लिए टूर्नामेंट के दरवाज़े बंद हो गए हैं.
अभी छह मैचों में पाँच अंक लेकर पाकिस्तान सातवें नंबर पर है. तो अब पाकिस्तान कैसे अंतिम चार में पहुँच सकती है.
न्यूज़ीलैंड- छह मैचों में पाँच जीत के साथ 11 अंक लेकर टॉप पर है. इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मैच बाकी. बस एक और जीत से कीवियों की सेमीफ़ाइनल में जगह पक्की हो जाएगी.
(लेकिन तब क्या अगर न्यूज़ीलैंड तीन में से एक भी मुक़ाबला नहीं जीत सकी. तो उसके 11 अंक ही रहेंगे, लेकिन इस स्थिति में श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान के लिए बचे तीन-तीन मुक़ाबलों में से कम से कम एक में हार ज़रूरी है, ताकि तीनों 10 अंकों तक न पहुँच सकें.)
ऑस्ट्रेलिया
छह मैचों में 5 जीत के साथ 10 अंक लेकर दूसरे नंबर पर है कंगारू टीम. ऑस्ट्रेलिया अभी तक सिर्फ़ अपना मुक़ाबला भारत से हारा है.
एरोन फ़िंच की टीम के इंग्लैंड, न्यूज़ीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के ख़िलाफ़ मैच बाकी हैं. एक और जीत देगी सेमीफ़ाइनल में पहुँचने की गारंटी.
(लेकिन अगर वो बचे तीनों मुक़ाबलों में से एक भी नहीं जीत सकी तो..... ऑस्ट्रेलिया के 10 अंक ही रह जाएंगे. ऐसे में कंगारुओं को उम्मीद करनी होगी कि श्रीलंका कम से कम दो मैचों में परास्त हो और बांग्लादेश और पाकिस्तान भी कम से कम एक-एक मुक़ाबला गंवा दें. इस तरह श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान तीनों 11 अंक हासिल नहीं कर पाएंगे.)
भारत
अभी तक टूर्नामेंट में अपराजेय रही है विराट कोहली की टीम. पाँच मैचों में चार जीत के साथ 9 अंक लेकर तीसरे नंबर पर है.
टीम इंडिया दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान को शिकस्त दे चुकी है और बारिश से बाधित मैच में न्यूज़ीलैंड से अंक बांटा है.
वेस्ट इंडीज़, इंग्लैंड, बांग्लादेश और श्रीलंका के ख़िलाफ़ मैच बाकी. दो मैचों में जीत से तय हो जाएगी सेमीफ़ाइनल में जगह पक्की.
(लेकिन अगर टीम इंडिया बाकी बचे चार मैचों में से एक भी नहीं जीत पाई तो....भारत के नौ ही अंक रह जाएंगे. ऐसे में टीम इंडिया ये उम्मीद करेगी कि श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश बाकी बचे एक से अधिक मैच न जीत पाएं. साथ ही वेस्टइंडीज़ भी कम से कम एक मैच हार जाए.)
इंग्लैंड
आईसीसी की वनडे रैंकिंग में नंबर एक मेज़बान टीम इंग्लैंड छह मैचों में 4 जीत के साथ आठ अंक लेकर चौथे नंबर पर है.
Monday, June 10, 2019
السودان: هل يمثل ما أعلنه البرهان سعيا حقيقيا نحو دولة مدنية ديمقراطية؟
أعاد المجلس العسكري فجر الثلاثاء الرابع من حزيران/ يونيو، حراك السودان إلى ة الصفر، بإعلانه إلغاء كل الاتفاقات السابقة مع قوى الحرية
والتغيير، وتشكيل حكومة لتسيير الأعمال، وتنظيم انتخابات في غضون تسعة
أشهر، بإشراف دولي.
وجاءت خطوة المجلس العسكري الحاكم في السودان، بعد يوم واحد من عملية فض دموية، لاعتصام استمر لمدة شهرين، قبالة مقر القيادة العامة للقوات المسلحة السودانية في العاصمة الخرطوم، وهي العملية التي أسفرت عن مقتل 35 سودانيا على أيدي قوات الأمن، ولقيت تنديدا من عدة دول في العالم.
وفي أول كلمة له بعد فض الاعتصام، اتهم عبد الفتاح البرهان رئيس المجلس العسكري الانتقالي، قوى الحرية والتغيير التي تقود الحراك السوداني، ضد حكم المجلس العسكري، بأنها تسعى للانفراد بحكم السودان "لاستنساخ نظام شمولي آخر يُفرض فيه رأي واحد يفتقر للتوافق والتفويض الشعبي والرضا العام". نافيا في الوقت نفسه أن تكون لدى المجلس العسكري رغبة في السلطة.
وأثار حديث البرهان وما أعلنه من قرارات، تمثل ردة عن التفاوض مع قوى الحرية والتغيير، العديد من التساؤلات حول ما إذا كان العسكريون في السودان جادين، فيما يتعلق بالتحول إلى حكم مدني ديمقراطي في البلاد، أم أنهم يتبعون تكتيكات تهدف في النهاية، إلى الاستمرار في حكم البلاد، أو دفع طرف موال لهم للحكم بحيث يحكمون من وراء ستار.
على الجانب الآخر لقي ما قاله البرهان رفضا فوريا، من قبل تجمع المهنيين السودانيين الذي يقود الحراك السوداني منذ تفجره، وجاء في بيان للتجمع إن "تجدد الخطاب الانقلابي سيشعل أوار الثورة من جديد". وإن "النظام القديم المتجدد يحاول رسم سيناريو مسرحية كذوب عبر شاشات التلفاز، ولكنه لا يعلم أنها مسرحية حُرقت فصولها واستبان عوارها قبل رفع الستار عنها، وما مخطط إعلان الانتخابات والتنصل عن الاتفاق مع قوى الحرية والتغيير وإعلان تشكيل حكومة إلا هزال بعضه فوق بعض". مشيرا إلى أن "الإضراب السياسي متواصل والعصيان المدني الشامل مستمر حتى إسقاط النظام".
وترفض قوى الحرية والتغيير في السودان فكرة التعجيل بالانتخابات، التي يصر عليها المجلس العسكري، وترى أنها يجب أن يعد لها بعناية، وعبر فترة انتقالية أطول من قبل حكومة مدنية، يكون رأس السلطة فيها للمدنيين، وهو ما رفضه المجلس العسكري، عبر المفاوضات التي جرت بينه وبين قوى إعلان الحرية والتغيير، والتي استمرت لأسابيع ووصلت إلى طريق مسدود.
ويرى مراقبون أن المجلس العسكري، ربما يسعى من خلال طرحه فكرة الانتخابات العاجلة، وقوله بأن تحالف قوى الحرية والتغيير لا يمثل كل السودانيين، إلى استمالة تيار سياسي قوي في السودان، هو تيار الإسلام السياسي، الذي ظل داعما قويا لحكم الرئيس المخلوع عمر حسن البشير، ويسعى الآن إلى العودة إلى الواجهة بشكل تدريجي، عبر استغلال الخلافات بين المجلس العسكري وقوى الحرية والتغيير وإظهار الانحياز للمجلس.
وكانت صحيفة (لوفيجارو) الفرنسية قد أشارت في تقرير لها، إلى أن المجلس العسكري يعول سرا على الإسلاميين الذين كانوا إلى وقت قريب أهم داعمي البشير، وأشار التقرير إلى ما قام به التيار الإسلامي في مايو الماضي من المطالبة بتطبيق الشريعة الاسلامية في السودان واستبعاد الدولة العلمانية.
وكان ما يعرف بتيار (نصرة الشريعة والقانون)، قد رفض خلال اجتماع حاشد ومسيرة له في الخرطوم، في 15 أيار مايو الماضي، ما وصفه بتسليم البلاد لـ (قوى الحرية والتغيير) واصفا إياها باليسار، ومهددا بأن جميع الخيارات مفتوحة لمقاومة الاتفاق الذي تم بين المجلس العسكري الانتقالي، وقوى الحرية والتغيير ووصفه بالإقصائي، وقد طرح هذا الخطاب تساؤلات حول استغلال التيار الاسلامي للمرحلة، بينما ظل على مدى خمسة أشهر من الاحتجاجات ضد البشير، غير مشارك في المشهد السوداني، وأعلن حتى تأييده لتولى عسكري رئاسة المجلس السيادي، الذي كان مقترحا خلال المفاوضات.
وتعتبر قيادات من قوى الحرية والتغيير في السودان، أن ما طرحه المجلس العسكري من خطط بإجراء انتخابات، والحديث عن مشاركة كل التيارات السودانية، ربما يهدف إلى استغلال التيار الاسلامي ليكون ظهيرا له، لكنهم يشيرون إلى أن التجارب السابقة في المنطقة، تؤكد أن الحكم العسكري لا يؤمن بتحالفات طويلة، وأنه حتى وإن تحالف مع الاسلاميين فإنه قد ينقلب عليهم لاحقا.
وجاءت خطوة المجلس العسكري الحاكم في السودان، بعد يوم واحد من عملية فض دموية، لاعتصام استمر لمدة شهرين، قبالة مقر القيادة العامة للقوات المسلحة السودانية في العاصمة الخرطوم، وهي العملية التي أسفرت عن مقتل 35 سودانيا على أيدي قوات الأمن، ولقيت تنديدا من عدة دول في العالم.
وفي أول كلمة له بعد فض الاعتصام، اتهم عبد الفتاح البرهان رئيس المجلس العسكري الانتقالي، قوى الحرية والتغيير التي تقود الحراك السوداني، ضد حكم المجلس العسكري، بأنها تسعى للانفراد بحكم السودان "لاستنساخ نظام شمولي آخر يُفرض فيه رأي واحد يفتقر للتوافق والتفويض الشعبي والرضا العام". نافيا في الوقت نفسه أن تكون لدى المجلس العسكري رغبة في السلطة.
وأثار حديث البرهان وما أعلنه من قرارات، تمثل ردة عن التفاوض مع قوى الحرية والتغيير، العديد من التساؤلات حول ما إذا كان العسكريون في السودان جادين، فيما يتعلق بالتحول إلى حكم مدني ديمقراطي في البلاد، أم أنهم يتبعون تكتيكات تهدف في النهاية، إلى الاستمرار في حكم البلاد، أو دفع طرف موال لهم للحكم بحيث يحكمون من وراء ستار.
على الجانب الآخر لقي ما قاله البرهان رفضا فوريا، من قبل تجمع المهنيين السودانيين الذي يقود الحراك السوداني منذ تفجره، وجاء في بيان للتجمع إن "تجدد الخطاب الانقلابي سيشعل أوار الثورة من جديد". وإن "النظام القديم المتجدد يحاول رسم سيناريو مسرحية كذوب عبر شاشات التلفاز، ولكنه لا يعلم أنها مسرحية حُرقت فصولها واستبان عوارها قبل رفع الستار عنها، وما مخطط إعلان الانتخابات والتنصل عن الاتفاق مع قوى الحرية والتغيير وإعلان تشكيل حكومة إلا هزال بعضه فوق بعض". مشيرا إلى أن "الإضراب السياسي متواصل والعصيان المدني الشامل مستمر حتى إسقاط النظام".
وترفض قوى الحرية والتغيير في السودان فكرة التعجيل بالانتخابات، التي يصر عليها المجلس العسكري، وترى أنها يجب أن يعد لها بعناية، وعبر فترة انتقالية أطول من قبل حكومة مدنية، يكون رأس السلطة فيها للمدنيين، وهو ما رفضه المجلس العسكري، عبر المفاوضات التي جرت بينه وبين قوى إعلان الحرية والتغيير، والتي استمرت لأسابيع ووصلت إلى طريق مسدود.
ويرى مراقبون أن المجلس العسكري، ربما يسعى من خلال طرحه فكرة الانتخابات العاجلة، وقوله بأن تحالف قوى الحرية والتغيير لا يمثل كل السودانيين، إلى استمالة تيار سياسي قوي في السودان، هو تيار الإسلام السياسي، الذي ظل داعما قويا لحكم الرئيس المخلوع عمر حسن البشير، ويسعى الآن إلى العودة إلى الواجهة بشكل تدريجي، عبر استغلال الخلافات بين المجلس العسكري وقوى الحرية والتغيير وإظهار الانحياز للمجلس.
وكانت صحيفة (لوفيجارو) الفرنسية قد أشارت في تقرير لها، إلى أن المجلس العسكري يعول سرا على الإسلاميين الذين كانوا إلى وقت قريب أهم داعمي البشير، وأشار التقرير إلى ما قام به التيار الإسلامي في مايو الماضي من المطالبة بتطبيق الشريعة الاسلامية في السودان واستبعاد الدولة العلمانية.
وكان ما يعرف بتيار (نصرة الشريعة والقانون)، قد رفض خلال اجتماع حاشد ومسيرة له في الخرطوم، في 15 أيار مايو الماضي، ما وصفه بتسليم البلاد لـ (قوى الحرية والتغيير) واصفا إياها باليسار، ومهددا بأن جميع الخيارات مفتوحة لمقاومة الاتفاق الذي تم بين المجلس العسكري الانتقالي، وقوى الحرية والتغيير ووصفه بالإقصائي، وقد طرح هذا الخطاب تساؤلات حول استغلال التيار الاسلامي للمرحلة، بينما ظل على مدى خمسة أشهر من الاحتجاجات ضد البشير، غير مشارك في المشهد السوداني، وأعلن حتى تأييده لتولى عسكري رئاسة المجلس السيادي، الذي كان مقترحا خلال المفاوضات.
وتعتبر قيادات من قوى الحرية والتغيير في السودان، أن ما طرحه المجلس العسكري من خطط بإجراء انتخابات، والحديث عن مشاركة كل التيارات السودانية، ربما يهدف إلى استغلال التيار الاسلامي ليكون ظهيرا له، لكنهم يشيرون إلى أن التجارب السابقة في المنطقة، تؤكد أن الحكم العسكري لا يؤمن بتحالفات طويلة، وأنه حتى وإن تحالف مع الاسلاميين فإنه قد ينقلب عليهم لاحقا.
Monday, May 20, 2019
استقطبت حركة "قوة الشعب" في الفلبين ملايين المؤيدين ونجحت في الإطاحة بنظام ماركوس
وننتقل إلى صحيفة التايمز التي نشرت تقريراً لمراسلها محمد عز من القاهرة بعنوان "فقراء مصر يفطرون في رمضان على بقايا الأطعمة المتعفنة".
وقال كاتب التقرير إن الصائمين يعدون أطيب الوجبات للإفطار لدى غروب شمس كل يوم في شهر رمضان، وعادة ما تكون هذه الوجبات دسمة ومتنوعة.
وأضاف أنعشرات الملايين من السكان في مصر يعيشون في فقر مدقع، وأن العديد منهم يفطرون على بقايا الأطعمة، مشيراً إلى أن البطاطس القديمة وعظام الدجاج والجبنة المتعفنة تباع للفقراء في سوق كرداسة.
وأشار كاتب التقرير إلى أن بعض التجار يجمعون بقايا الطعام من المطاعم والفنادق والمصانع لتباع في هذا السوق.
ويجول بنا كاتب التقرير في هذا السوق حيث تجلس سيدة بالقرب من أكوام من النفايات وتنادي المارة لتقنعهم بشراء علبة "موتيلا" بنصف سعرها لأن مدة صلاحيتها انتهت منذ 6 شهور، وفي الجهة المقابلة يجلس شاب يبيع المخللات في برميل قذر.
ونقل كاتب المقال عن أحمد وليد (40 عاما) - موظف حكومي - قوله إن شراء دجاجة كاملة يعد قرارا خطيرا إذ إنه يتقاضى شهريا 2000 جنيه مصري (90 جنيها إسترلينيا)، لذا فهو يشتري كيلو غراما واحدا فقط من أرجل الدجاجة ورقابها وأجنحتها مرة في الأسبوع بنحو 80 قرشاً لإطعام أولاده الثلاثة.
وسلط كاتب التقرير الضوء على ارتفاع نسبة الفقر والبطالة في مصر منذ توقيع الرئيس عبد الفتاح السيسي على قرض مالي بقيمة 9 مليارات جنيه إسترليني من البنك الدولي في عام 2016، مما أضعف قيمة العملة المحلية وزاد من نسبة التضخم في البلاد.
وأردف أن رواتب الموظفين في مصر لم تعد تتماشى مع ارتقاع نسبة التضخم في البلاد بخاصة مع زيادة النمو السكاني، إذ يتخطى عدد سكان مصر 100 مليون نسمة يعيش 60 في المئة منهم في فقر.
وختم بالقول إن سعر اللحوم في مصر يعتبر الأرخص على مستوى العالم، غير أن الأمر مختلف بالنسبة للمصريين الذين يعيشون على الحد الأدنى من الأجور، فيتعين عليهم العمل أكثر من 20 ساعة لشراء كيلو من اللحم.
وإلى صحيفة آي التي نشرت موضوعا تحليليا لماثيو نورمان بعنوان "السباق قد بدأ .. هل يربح بوريس؟".
ويقول كاتب المقال إن "السباق انتهى قبل أن يبدأ، وقد يصعد بوريس جونسون هذا الصيف إلى رئاسة الوزراء في بريطانيا.
ويشير إلى أن جونسون أقام يوم الثلاثاء الماضي عشاء مميزاً لنحو خمسين نائباً في البرلمان في موقع مميز وقال إنه يسعى للوصول إلى مناطق محرومة في البلاد.
ويضيف كاتب المقال أن بوريس يعد المرشح المفضل للكثيرين، ففي الصفحة المخصصة للإحصاءات الحكومية الرسمية يتصدر بوريس قائمة المرشحين بنحو 39 في المئة أي ثلاثة أضعاف المؤيدين لدومينك راب زميله في الحزب والوزير السابق الذي يطالب
وفي وقت سابق من هذا العام، أعلن كل من الرئيس السوداني عمر البشير والرئيس الجزائري بوتفليقة التنحي عن السلطة التي ظلا ممسكين بزمامها لعقود، تحت ضغط الحراك الشعبي السلمي.
لا شك أن هناك أسبابا أخلاقية وراء انتهاج الأساليب السلمية، لكن إيريكا شينوويث، الباحثة في العلوم السياسية بجامعة هارفارد، تؤكد أن العصيان المدني ليس خيارا أخلاقيا فحسب، بل ثبت أيضا أنه أكثر قوة وفعالية بمراحل من جميع أشكال الاحتجاج الأخرى في تشكيل المشهد السياسي العالمي.
وبعد تحليل مئات الاحتجاجات الشعبية التي انطلقت على مدى القرن الماضي، خلصت شينوويث إلى أن فرص نجاح الحراك الشعبي السلمي أعلى من فرص نجاح الاحتجاج غير السلمي في تحقيق أهدافه بمقدار الضعف، وأن مشاركة 3.5 في المئة من السكان مشاركة فعالة في الاحتجاجات تضمن حصول تغيير سياسي حقيقي.
ولاقت
نتائج أبحاث شينوويث صدى لدى مؤسسي حركة "اكستنكشن ريبليون" (التمرد ضد فناء البشرية)، التي قادت احتجاجات سلمية ضد تداعيات تغير المناخ.
بالخروج من الاتحاد الأوروبي
وقال كاتب التقرير إن الصائمين يعدون أطيب الوجبات للإفطار لدى غروب شمس كل يوم في شهر رمضان، وعادة ما تكون هذه الوجبات دسمة ومتنوعة.
وأضاف أنعشرات الملايين من السكان في مصر يعيشون في فقر مدقع، وأن العديد منهم يفطرون على بقايا الأطعمة، مشيراً إلى أن البطاطس القديمة وعظام الدجاج والجبنة المتعفنة تباع للفقراء في سوق كرداسة.
وأشار كاتب التقرير إلى أن بعض التجار يجمعون بقايا الطعام من المطاعم والفنادق والمصانع لتباع في هذا السوق.
ويجول بنا كاتب التقرير في هذا السوق حيث تجلس سيدة بالقرب من أكوام من النفايات وتنادي المارة لتقنعهم بشراء علبة "موتيلا" بنصف سعرها لأن مدة صلاحيتها انتهت منذ 6 شهور، وفي الجهة المقابلة يجلس شاب يبيع المخللات في برميل قذر.
ونقل كاتب المقال عن أحمد وليد (40 عاما) - موظف حكومي - قوله إن شراء دجاجة كاملة يعد قرارا خطيرا إذ إنه يتقاضى شهريا 2000 جنيه مصري (90 جنيها إسترلينيا)، لذا فهو يشتري كيلو غراما واحدا فقط من أرجل الدجاجة ورقابها وأجنحتها مرة في الأسبوع بنحو 80 قرشاً لإطعام أولاده الثلاثة.
وسلط كاتب التقرير الضوء على ارتفاع نسبة الفقر والبطالة في مصر منذ توقيع الرئيس عبد الفتاح السيسي على قرض مالي بقيمة 9 مليارات جنيه إسترليني من البنك الدولي في عام 2016، مما أضعف قيمة العملة المحلية وزاد من نسبة التضخم في البلاد.
وأردف أن رواتب الموظفين في مصر لم تعد تتماشى مع ارتقاع نسبة التضخم في البلاد بخاصة مع زيادة النمو السكاني، إذ يتخطى عدد سكان مصر 100 مليون نسمة يعيش 60 في المئة منهم في فقر.
وختم بالقول إن سعر اللحوم في مصر يعتبر الأرخص على مستوى العالم، غير أن الأمر مختلف بالنسبة للمصريين الذين يعيشون على الحد الأدنى من الأجور، فيتعين عليهم العمل أكثر من 20 ساعة لشراء كيلو من اللحم.
وإلى صحيفة آي التي نشرت موضوعا تحليليا لماثيو نورمان بعنوان "السباق قد بدأ .. هل يربح بوريس؟".
ويقول كاتب المقال إن "السباق انتهى قبل أن يبدأ، وقد يصعد بوريس جونسون هذا الصيف إلى رئاسة الوزراء في بريطانيا.
ويشير إلى أن جونسون أقام يوم الثلاثاء الماضي عشاء مميزاً لنحو خمسين نائباً في البرلمان في موقع مميز وقال إنه يسعى للوصول إلى مناطق محرومة في البلاد.
ويضيف كاتب المقال أن بوريس يعد المرشح المفضل للكثيرين، ففي الصفحة المخصصة للإحصاءات الحكومية الرسمية يتصدر بوريس قائمة المرشحين بنحو 39 في المئة أي ثلاثة أضعاف المؤيدين لدومينك راب زميله في الحزب والوزير السابق الذي يطالب
في عام 1986، شارك الملايين في العاصمة الفلبينية مانيلا في مسيرات سلمية في الثورة التي حملت اسم "قوة الشعب"، ولم تمر أربعة أيام حتى سقط نظام ماركوس.
وفي عام 2003، أجبر
سكان جورجيا الرئيس إدوارد شيفرنادزة على الاستقالة، عقب ثورة الورود التي
اقتحم فيها المحتجون البرلمان حاملين في أيديهم زهورا دون إراقة قطرة دم
واحدة.وفي وقت سابق من هذا العام، أعلن كل من الرئيس السوداني عمر البشير والرئيس الجزائري بوتفليقة التنحي عن السلطة التي ظلا ممسكين بزمامها لعقود، تحت ضغط الحراك الشعبي السلمي.
لا شك أن هناك أسبابا أخلاقية وراء انتهاج الأساليب السلمية، لكن إيريكا شينوويث، الباحثة في العلوم السياسية بجامعة هارفارد، تؤكد أن العصيان المدني ليس خيارا أخلاقيا فحسب، بل ثبت أيضا أنه أكثر قوة وفعالية بمراحل من جميع أشكال الاحتجاج الأخرى في تشكيل المشهد السياسي العالمي.
وبعد تحليل مئات الاحتجاجات الشعبية التي انطلقت على مدى القرن الماضي، خلصت شينوويث إلى أن فرص نجاح الحراك الشعبي السلمي أعلى من فرص نجاح الاحتجاج غير السلمي في تحقيق أهدافه بمقدار الضعف، وأن مشاركة 3.5 في المئة من السكان مشاركة فعالة في الاحتجاجات تضمن حصول تغيير سياسي حقيقي.
بالخروج من الاتحاد الأوروبي
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