ख़ास बात यह है कि ओवैसी महाराष्ट्र में सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं रहे हैं. उन्होंने मुस्लिम-दलित गठजोड़ पर फ़ोकस किया है ताकि उनकी पार्टी
का प्रभाव बढ़ सके.
बीबीसी मराठी सेवा के संपादक आशीष दीक्षित बताते
हैं कि ओवैसी ने नारा दिया है- "जय भीम, जय मीम." विधानसभा चुनाव के प्रचार
दौरान ओवैसी अपनी रैलियों में डॉक्टर आंबेडकर की तस्वीरें रखते थे और
उन्होंने अपनी पार्टी से कई जगहों पर दलितों को भी टिकट दिए.
2019
लोकसभा चुनाव के दौरान अहम मोड़ तब आया जब मजलिस ने प्रकाश आंबेडर की
पार्टी बीबीए के साथ गठजोड़ किया और औरंगाबाद सीट पर जीत हासिल की. इस तरह इस बार लोकसभा में एमआईएम के दो सांसद हैं. एक औरंगाबाद से इम्तियाज़ जलील
और दूसरे ओवैसी ख़ुद.
हालांकि हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव से
पह
पूरे पश्चिम बंगाल में मुसलमान वोटरों की संख्या लगभग 30 प्रतिशत है और
कई सीटों पर वे निर्णायक भूमिका निभाते हैं. ऐसे में ममता को डर यह भी है
कि एआईएमआईएम अगर चुनाव में उम्मीदवार उतारती है तो वोट कटने से बीजेपी को
फ़ायदा न मिल जाए जो तेज़ी से राज्य में अपना प्रभाव बढ़ा रही है.
कोलकाता
में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर एम. कहते हैं, "ओवैसी कह चुके हैं कि
अगले चुनाव में वह पश्चिम बंगाल में उम्मीदवार उतार सकते हैं. यहां
अल्पसंख्यक मतदाता लगभग 150 सीटों पर निर्णायक भूमिका में होते हैं. पहले
ये लेफ़्ट के साथ थे, फिर ममता ने उन्हें अपने साथ किया. 2011 में ममता
बनर्जी इसी तबके के समर्थन और वोटों के दम पर सत्ता में आई थीं."
इसी
साल हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अगर उसकी उम्मीदों के मुताबिक़ सीटें
नहीं मिली तो इसका कारण भी यही माना गया कि अल्पसंख्यक तबके ने तृणमूल
कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा था. लेकिन अब ममता बनर्जी को डर है कि ओवैसी का
बढ़ता प्रभाव तृणमूल कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब न बन जाए.
प्रभाकर
एम. कहते हैं, "ममता की चिंता इसलिए बढ़ी है कि ओवैसी यहां एक-बार हाल ही में आ चुके हैं. उन्हें डर यह है कि एक-डेढ़ साल बाद होने वाले चुनावों में
अगर ओवैसी ने अपनी पार्टी से उम्मीदवार खड़े किए तो वोटों का विभाजन होगा
जिसका सीधा नुक़सान तृणमूल कांग्रेस को होगा और यह बीजेपी के लिए फ़ायदे की
स्थिति है."
माना जा रहा है कि इसी कारण इशारों-इशारों में ममता बनर्जी ने नाम लिए बिना ओवैसी की पार्टी पर 'बीजेपी के साथ मिले होने' का
आरोप लगाया. हालांकि इस पर ओवैसी ने पलटवार करते हुए कहा है कि "अपनी
अक्षमताओं के लिए हर कोई मुझे टारगेट कर रहा है."
मजलिस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उम्मीदवार उतारे थे मगर उसे वहां सफलता नहीं मिली थी. मगर बिहार के किशनगंज में हुए विधानसभा
उपचुनाव के दौरान मजलिस के प्रत्याशी कमरुल होदा ने बीजेपी प्रत्याशी
स्वीटी सिंह को 10 हज़ार से अधिक वोटों से हरा दिया. यह कांग्रेस की पारंपरिक सीट थी मगर यहां कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही थी.
ख़ास बात
यह है कि किशनगंज बिहार का वह इलाक़ा है जो पश्चिम बंगाल से जुड़ा हुआ है.
ओवैसी और एआईएमआईएम की राजनीति पर वरिष्ठ पत्रकार उमर फ़ारूक़ कहते हैं
एआईएमआईएम का इस क्षेत्र में बढ़ता प्रभाव भी ममता बनर्जी की चिंता का कारण
हो सकता है.
वह कहते हैं, "पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत में मुसलमानों के वोटों की अहम भूमिका रहती है. ओवैसी की लोकप्रियता अन्य
राज्यों के मुसलमानों के बीच बढ़ रही है. ऐसे में स्वाभाविक है कि ममता
बनर्जी को भी चिंता सता रही होगी कि पश्चिम बंगाल के मुसलमान भी ओवैसी की
पार्टी की तरफ़ आकर्षित न हो जाएं. फिर किशनगंज का इलाक़ा पश्चिम बंगाल के
नज़दीक है. तो वहां का कुछ न कुछ प्रभाव तो पश्चिम बंगाल पर पड़ेगा
कूचबिहार, जहां ममता बनर्जी ने अप्रत्यक्ष तौर पर ओवैसी पर निशाना साधा, वहां मुसलमानों की आबादी अधिक है."
सवाल यह है कि ऐसे क्या कारण हो सकते हैं कि तृणमूल को डर है कि अब तक जो मतदाता उसके साथ थे, वे कल को छिटक सकते हैं?
इस
पर उमर फ़ारूक़ कहते हैं, "ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में निराशा बढ़ रही है. उन्हें लगता है कि शिक्षा और नौकरियों को लेकर उनकी
स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़ापन शायद वहां
ज़्यादा है. उन्हें उम्मीद थी कि आकर्षक बातों और वादों से इतर तृणमूल
सरकार उनकी समस्याओं को हल करने की कोशिश करेगी. मगर लगता है ऐसा हुआ नहीं
है."
ले एआईएमआईएम और बीबीए का गठबंधन सीटों के विवाद के कारण टूट गया, बावजूद उसके मजलिस को दो सीटें मिली हैं- धुले और मालेगांव. फिर भी औरंगाबाद,
मराठवाड़ा और मुंबई के कुछ इलाक़ों से मजलिस को काफ़ी वोट मिले हैं.